प्रजातंत्र की चुनौतियां।


प्रजातंत्र

भारत के लोकतंत्र ने जैसे-जैसे पत्थरों को अपने सीने पर सहा है, उतने में तो कम-से-कम किसी भी विकासशील देश का लोकतंत्र कब का टें बोल जाता. वैसे तो किसी भी लोकतंत्र में इतनी जीवन-शक्ति होनी चाहिए कि वह विरोधों का सामंजस्य करता रहे और संकटों को जज्ब करता जाए.

भारत में लोकतंत्र को कमजोर करने वाली ताकतों और प्रक्रियाओं की सूची बनाएँ तो वह निश्चित ही उसे मजबूत करने वाली सूची से काफी लम्बी बनेगी. सामन्तवाद और पूँजीवादी या समाजवादी तानाशाही के बरक्स लोकतंत्र की एक खासियत यह होती है कि वह अपनी आलोचना की इजाजत देता है. कई बार जब लोग लोकतंत्र को आड़े हाथों ले रहे होते हैं, भूल जाते हैं कि वे ऐसा करते हुए लोकतंत्र प्रदत्त अधिकार का प्रयोग ही कर रहे हैं. 

कई बार लोकतंत्र की आलोचना लोकतंत्र को और बेहतर बनाने के लिए नहीं बल्कि उसके खिलाफ की जाती है. एक अच्छे लोकतंत्र में इसकी भी जगह होनी चाहिए. ऐसे ज्यादातर खतरों का मुकाबला करने के लिए लोकतंत्र उन पर पाबन्दी नहीं लगाता बल्कि उनकी शक्ति खर्च हो जाने या व्यापक प्रक्रिया में जज्ब हो जाने का इन्तजार करता है. मगर लोकतंत्र का संकट बढ़ाने में ऐसी ताकतों का योगदान रहता है. 

पश्चिम में जहाँ आधुनिक लोकतंत्र पैदा हुआ, वहाँ आज मोटे तौर पर इसकी प्रतिस्पर्धा में कोई दूसरी व्यवस्था नहीं है. रूढ़िवाद के गैर-लोकतांत्रिक रूप से बेहद कमजोर हो गये हैं, और लोकतांत्रिक रूढ़िवाद ही वहाँ बचा है. सामाजिक जनवाद तो लोकतंत्र से सहमत है ही, अधिकांश यूरोपीय कम्युनिस्ट भी लोकतंत्र से संगति बिठाते हैं और लोकतांत्रिक समाजवाद की सम्भावनाएँ तलाश रहे हैं.

भारत में लोकतंत्र को बकवास या रोड़ा मानने वाली कई विचार-नीतियों का वर्चस्व बना हुआ है. उनकी मजबूरी यह है कि राजनीतिक धरातल पर उन्हें लोकतंत्र प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए ही अपना काम करना पड़ता है या प्रकटतः लोकतांत्रिक अधिकारों की दुहाई देनी पड़ती है. और यहीं उन विचार-नीतियों का तर्क कमजोर हो जाता है. उनमें विरोधाभास पैदा हो जाते हैं.

आपका अपना,

किशोरगिरी आर गोस्वामी


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